कोरोना वार या प्रकृति का प्रहार

कोरोना वार या प्रकृति का प्रहार




सोलन (राज)

मैं निहार रहा था उन वीरान सुनसान सड़कों को 
जो थकती नहीं थी, कभी रूकती नहीं थी ।
जो चलायमान थी हर मौसम में 
सर्दी में ,गर्मी में 
अंधेरी रात मे ,सूर्य की धूप में।
थोड़ी हैरान थी, थोड़ी परेशान थी
सोच रही थी
आखिर मानव इतना दूर क्यों है ?
घर रहने को मजबूर क्यों है ? 
मैं निहार रहा था ,वीरान सुनसान सड़कों को 
जो पूछ रही थी
मंगल पर पहुँचने वाला मौन क्यों है ?
विज्ञान आज गौण क्यों है ?
क्यों परमाणु पर एक विषाणु भारी हैं ?
क्यों दुनिया की ताकत हारी है 
घर में कैद होना क्या वीरता की निशानी है।
या बंद होकर बचना ईश्वर की मेहरबानी है ।।
क्या ये तुम्हारा ही किया धरा है ।
या भरा तुम्हारे पाप का घडा़ है ।।
मै निहार रहा था वीरान सुनसान सड़कों को 
जो कह रही थी
किया होगा जब तुमने चीरहरण प्रकृति का ।
उसमे भी क्षोभ आया होगा ।।
 रोई चिल्लाई होगी वो भी ।
उसमे भी कोरोना जैसा तुम्हें पाया होगा ।।
क्या ये उसका ही प्रतिकार तो नहीं ?
विषाणु कोरोना का वार तो नहीं ।
चेतावनी आखिरी समझ तुम संभल  जाओ ।
प्रकृति से स्वस्थ जीवन का आशीर्वाद पाओ ।।
मै निहार रहा था ,वीरान सुनसान सड़कें 
जो तरस रही है
आज भी तुम्हारे कदमों को  
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